परिचय
चंद्रशेखर आज़ाद (23 जुलाई 1906 – 27 फरवरी 1931) भारत के उन वीर सपूतों में से एक थे, जिन्होंने अपने जीवन को पूर्णतः देश की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया।
वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे निर्भीक और प्रेरणादायक क्रांतिकारियों में गिने जाते हैं।
“आज़ाद” नाम उन्होंने खुद को दिया था — और अपने अंतिम क्षणों तक वे इस नाम के अनुरूप रहे।
उनका नारा “दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आज़ाद ही रहे हैं, आज़ाद ही रहेंगे!” आज भी भारतीयों के दिलों में गूंजता है।
प्रारंभिक जीवन
चंद्रशेखर आज़ाद जी का जन्म भवरा (अब मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले में) हुआ था।
उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था।
बचपन से ही उनमें देशप्रेम की भावना और अन्याय के खिलाफ विद्रोह की चेतना थी।
वे बालक अवस्था से ही निर्भीक और निडर स्वभाव के थे।
गांधीजी के आंदोलन से जुड़ाव
1921 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की, तो मात्र 15 वर्ष की उम्र में चंद्रशेखर जी उसमें शामिल हो गए।
जब उन्हें गिरफ्तार किया गया और मजिस्ट्रेट ने उनका नाम पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया —
“नाम – आज़ाद, पिता का नाम – स्वतंत्रता, निवास – जेल”।
उसी दिन से वे “चंद्रशेखर आज़ाद” के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत
असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद चंद्रशेखर आज़ाद जी ने अहिंसा की नीति से असहमति जताई और क्रांतिकारी मार्ग चुना।
वे राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा स्थापित हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) से जुड़े।
बाद में उन्होंने संगठन का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) रखा, जिसका उद्देश्य भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना था।
काकोरी कांड
9 अगस्त 1925 को आज़ाद और उनके साथियों ने काकोरी ट्रेन डकैती की योजना बनाई, जिसका उद्देश्य सरकारी धन को जब्त कर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए उपयोग करना था।
इस घटना ने ब्रिटिश शासन को हिला दिया।
हालांकि, बाद में उनके कई साथी पकड़े गए — राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी को फांसी दे दी गई, लेकिन आज़ाद हर बार अंग्रेज़ों को चकमा देकर बच निकलते थे।
भगत सिंह जी से मुलाकात
चंद्रशेखर आज़ाद जी की मुलाकात लाहौर में भगत सिंह जी से हुई।
दोनों ने मिलकर क्रांति को संगठित दिशा दी और युवाओं को आज़ादी के लिए एकजुट किया।
आज़ाद, भगत सिंह के मार्गदर्शक और बड़े भाई समान थे।
दोनों ने मिलकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ कई योजनाएँ बनाई और जनता में स्वतंत्रता का संदेश फैलाया।
क्रांतिकारी कार्य और नेतृत्व
आज़ाद ने ब्रिटिश पुलिस और खुफिया विभाग के लिए आतंक का रूप धारण कर लिया था।
वे तेज़ी से स्थान बदलते और अपने साथियों को सुरक्षित रखते थे।
उन्होंने कई हथियार प्रशिक्षण शिविर चलाए और युवाओं को आत्मरक्षा व देशप्रेम सिखाया।
उनका अनुशासन और संगठन क्षमता असाधारण थी।
अंतिम संघर्ष – अल्फ्रेड पार्क
27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आज़ाद पार्क) में पुलिस ने उन्हें घेर लिया।
वे बहादुरी से घंटों तक मुकाबला करते रहे।
जब गोलियाँ खत्म हो गईं, तो उन्होंने अपनी आखिरी गोली खुद पर चला ली ताकि वे अंग्रेजों के हाथों जीवित न पकड़े जाएँ।
उन्होंने अपने नाम “आज़ाद” को सच्चे अर्थों में साबित किया।
प्रसिद्ध नारे और विचार
- “दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आज़ाद ही रहे हैं, आज़ाद ही रहेंगे!”
- “अगर किसी को देशभक्ति का पाठ पढ़ाना है, तो उसे क्रांतिकारी बनाओ।”
- “जीवन का असली अर्थ तभी है, जब वह मातृभूमि के काम आए।”
व्यक्तित्व और विरासत
चंद्रशेखर आज़ाद का व्यक्तित्व बल, साहस, और अनुशासन का प्रतीक था।
उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत सुख-सुविधा को महत्व नहीं दिया।
उनका जीवन युवाओं के लिए एक आदर्श है — कि राष्ट्र सर्वोपरि है, और उसके लिए किसी भी बलिदान से पीछे नहीं हटना चाहिए।
उनके नाम पर आज कई विद्यालय, सड़कें और पार्क बनाए गए हैं, जो उनके योगदान की याद दिलाते हैं।
निष्कर्ष
चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्चा देशभक्त कभी मृत्यु से नहीं डरता।
उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
वे केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि एक विचार हैं — जो हर उस भारतीय के भीतर जीवित है जो अपने देश से प्रेम करता है।
“वह मरे नहीं, वह आज भी जीवित हैं — हर देशभक्त के हृदय में।”